बंजारा
जहां ये मेरा बंजारों का घर है
ठिकाना ना कोई, आदतों का सफ़र है।
रूठें हैं इतने इनके मन ख़ुद के तन से
जितना सावन का हो अंतर छूटें बादलों से।
वो निर्जन पे हैं बरसे, ये मुक्तता में तरसे,
वो भांप होकर फिर से बादलों को पुकारे।
ये इतने हैं तरसे, ये मौन में हैं चींखें
तरस इनकी फिर भी कभी प्यास ना हो पाए।
तन इनका अब ऐसी चाल में स्थिर है
ना है मंजिल का सपना, ना सफ़र की नज़र है।
समय की छवि में मन यादें तराशे
और यादों में छिपकर 'आज' याद बन जाए।